लोबान का धुआँ सा लगता हे

.   पिया रूठे तो भाग्य रूठा हुआ सा लगता है
    हर सुलह के बाद प्रेम फिर नया सा लगता है
    किस तरह समझाऊँ वज़ूद पर छाए हो कैसे
    महकते लोबान का उड़ता धुँआ सा लगता है

   जो तुम आस पास हो तो मुश्किलें आसान
   तुम से जुदा हर लम्हा बंजर सा लगता है
   तुम्हारी सोहबत में वो शोखियां हासिल कि
   दुनिया की भीड़ में ये रिश्ता ही अपना लगता है

   जमाने भर की शिकायतें तुम्ही से है मुझको
   मगर संग तुम्हारा ख़ालिश सोना सा लगता है
   दुआ, सज़दे , धागे  , फ़रियाद , व्रत में तुम
   तुम बिन शाम का सिंदूरी सूरज भी अधूरा लगता है

    दिल लुभाने वाली शहद बातें नही आती तुमको
     लेकिन तुम्हारा मुस्कुराना भी मनुहार लगता है
     किस तरह समझाऊँ छाए हो वज़ूद पर  कैसे
    महकते लोबान का उड़ता धुँआ सा लगता है

कोई टिप्पणी नहीं

याद

वो कह कर चले गये की "कल" से भूल जाना हमे..। हमने भी सदियों से "आज" को रोके रखा है..।।

Blogger द्वारा संचालित.